Monday, October 19, 2015

रचनाकार का डर

कविताओं के बहुत अर्थ हो गए हैं,
लिखने का मन करता है, लिखता नहीं
डर जाता हूँ कि कहीं उसके अर्थ को,
 हरे, केसरिया रंग ले न उड़ें  I

ले जाकर उस अर्थ को आसमान पर
इतना ऊंचा टांग दें कि फिर
मैं अपनी कविता को दूर से देख भर पाऊँ
किन्तु उसका अर्थ किसी को बता न पाऊँ,
समझा न पाऊँ,
क्योंकि हर कोई उसका अर्थ
हरे और केसरिया रंग में रंग चुका होगा,
और मुझ से ही कह रहा होगा
"कमाल है यार इतनी सरल कविता का
अर्थ........... नहीं पता तुम्हे ?"  

6 comments:

  1. डरने की कतई ज़रुरत नहीं है! कविता कवि की नहीं रहती, उसके मालिक तो पाठक हो जाते हैं| कविता बढ़िया भी वही है जिसका मालिकाना हक़ पाठक के पास चला जाता है|

    बढ़िया रचना है, विशुद्ध व्यंग्यार्थ प्रतिध्वनित हो रहा है| बड़ी तगड़ी चोट मारी है, गुरु! मैच की पहली ही बॉल पर छक्का!! जियो!

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  2. सर अगली रचना के व्यास आप ही हैं में तो बस में तो गणपति हूँ I

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  4. अनुभूतियों और विचारों के कबूतर
    दुबक कर बैठ गये हैं
    व्यवस्था के कोतरों मे
    डरे-सहमे-लाचार!
    चलो कोई तो है
    जो उन्हे निकालने की हिमाकत कर रहा है ई

    बधाई मृगांक!
    अच्छी शुरुआत
    अल्लाह कर ज़ोरे. ए क़लम और ज़्यादा!!
    आमीन!

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  5. अनुभूतियों और विचारों के कबूतर
    दुबक कर बैठ गये हैं
    व्यवस्था के कोतरों मे
    डरे-सहमे-लाचार!
    चलो कोई तो है
    जो उन्हे निकालने की हिमाकत कर रहा है ई

    बधाई मृगांक!
    अच्छी शुरुआत
    अल्लाह कर ज़ोरे. ए क़लम और ज़्यादा!!
    आमीन!

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  6. मृगांक, अगली रचना के लिए कितना तडपाओगे?

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